Dakshin Bharat Rashtramat

ट्रूडोकांड: अति का अंत

जस्टिन ट्रूडो ने कनाडा के प्रधानमंत्री के पद से इस्तीफा दे ही दिया

ट्रूडोकांड: अति का अंत
ट्रूडो से लोगों को बड़ी आशाएं थीं

आखिरकार जस्टिन ट्रूडो ने कनाडा के प्रधानमंत्री के पद से इस्तीफा दे ही दिया। उनका यह अंजाम होगा, इसके योग तो प्रबल थे, लेकिन सबकुछ इतना जल्दी होगा, इसकी उम्मीद कम थी। खुद ट्रूडो ने भी नहीं सोचा होगा कि उन्हें इस तरह कुर्सी छोड़नी होगी। हालांकि वे अपने देश का भरपूर नुकसान कर चुके हैं, जिसकी भरपाई होने में वर्षों लगेंगे। ट्रूडो से लोगों को बड़ी आशाएं थीं। उन्हें सत्ता में लाने में भारतीय मूल के कनाडाई नागरिकों का बहुत सहयोग मिला था। इसके बाद ट्रूडो ने अपना 'असली रंग' दिखाना शुरू किया। अगर वे रचनात्मक राजनीति करते तो अपने देश को बहुत बेहतर स्थिति में छोड़कर जाते। अन्य देशों के साथ कनाडा के संबंध मधुर होते। उन्होंने क्या किया और क्या छोड़ा? ट्रूडो सिर्फ विभाजन की राजनीति करते रहे और एक विभाजित राष्ट्र छोड़कर कुर्सी से उतरे हैं। उनके शासन में कनाडा उग्रवादी तत्त्वों के लिए आश्रय स्थल बन गया था। खालिस्तान समर्थक दर्जनों कुख्यात उग्रवादी कनाडा में बैठकर भारत के खिलाफ बयानबाजी करते थे। उनमें यह दुस्साहस कहां से आया था? जब प्रधानमंत्री ही पैरवी करने लग जाएं तो कैसा डर! पिछले साल ब्रैम्पटन में हिंदू मंदिर पर कट्टरपंथियों और उग्रवादियों ने हमला कर दिया था। शांत और सहिष्णु माने जाने वाले कनाडा के बारे में ऐसी चर्चा होने लगी थी कि ट्रूडो का 'खालिस्तान प्रेम' इस देश को पाकिस्तान की राह पर ले जाएगा! पढ़ाई और रोजगार के लिए कनाडा गए कई भारतीय नागरिक 'अन्य विकल्पों' पर विचार करने लगे थे। ट्रूडो ने कनाडा-भारत संबंधों को बिगाड़ने के लिए पूरी ताकत लगा दी थी। उन्हें यह भ्रम था कि भारत सरकार दबाव में आ जाएगी, लेकिन हुआ इसका ठीक उल्टा। भारत सरकार कनाडा के आरोपों का पुरजोर खंडन करते हुए दृढ़ रही। इससे भी ट्रूडो की छवि को गहरा धक्का लगा था।

जस्टिन ट्रूडो के नेतृत्व को लेकर 'असंतोष' रातोंरात पैदा नहीं हुआ था। उन्होंने अपने 'कारनामों' से खुद ही ऐसा माहौल बना दिया। ट्रूडो से उम्मीद थी कि वे कनाडा की अर्थव्यवस्था को बेहतर बनाएंगे, रोजगार के अवसरों का सृजन करेंगे, मध्यम वर्ग को राहत देंगे। वे इन तीनों ही मामलों में नाकाम साबित हुए। कनाडा में मकान खरीदना काफी मुश्किल हो गया है। खानपान की लागत बढ़ गई है। रोजगार की स्थिति उत्साहजनक नहीं रही। कई लोगों की आमदनी घट गई। आव्रजन संबंधी नीतियां सवालों के घेरे में हैं। इन हालात में एक विवेकशील नेता ऐसे कदम उठाता है, जिनसे लोगों का भरोसा मजबूत हो। वहीं, ट्रूडो सोशल मीडिया से लेकर बड़े-बड़े मंचों से खालिस्तान समर्थकों के सुर में सुर मिला रहे थे। कुछ उग्रवादी, जो आपसी रंजिश में एक-दूसरे के शिकार हो गए थे, के लिए ट्रूडो का 'आंसू बहाना' ऐसा नाटक था, जिसे कनाडाई जनता ने पसंद नहीं किया। जब यह बात खुलकर सामने आ गई कि ट्रूडो को सिर्फ वोटबैंक से मतलब है, जिसके लिए वे राष्ट्र के हितों से समझौता करने से गुरेज़ नहीं करेंगे तो उनकी लोकप्रियता का ग्राफ तेजी से गिरने लगा था। जस्टिन ट्रूडो का अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के साथ छत्तीस का आंकड़ा रहा है। ट्रंप ने चुनाव जीतते ही ऐसे संकेत देने शुरू कर दिए थे कि अब 'प्रधानमंत्री' ट्रूडो के साथ उनका टकराव तय है। अगर ट्रूडो इस पद पर रहते तो कनाडा-अमेरिका के संबंधों में कड़वाहट का एक नया दौर शुरू होने की आशंका थी। कनाडा के इस संपूर्ण 'ट्रूडोकांड' में कई गहरे सबक हैं। राजनीति में शीर्ष पद अपने साथ बहुत बड़ी जिम्मेदारियां लेकर आता है। अक्लमंद वह है, जो अपने पद से जुड़ी 'शक्ति' का प्रयोग जनकल्याण के लिए करे। जो व्यक्ति अपने कर्तव्यों को भूलकर 'विध्वंसक तत्त्वों' से हाथ मिलाता है, संबंधों में कड़वाहट घोलता है, उसकी 'अति का अंत' इसी तरह होता है। बांग्लादेश में अंतरिम सरकार का नेतृत्व कर रहे मोहम्मद यूनुस को भी 'ट्रूडोकांड' से सबक लेना चाहिए।

About The Author: News Desk

News Desk Picture