बंद हो शारीरिक दंड

बच्चे को डंडे के जोर से न्यूटन, आइंस्टीन नहीं बनाया जा सकता

मारपीट से किया गया 'बदलाव' स्थायी नहीं होता

मद्रास उच्च न्यायालय का तमिलनाडु सरकार को स्कूलों में शारीरिक दंड को समाप्त करने के लिए ‘एनसीपीसीआर’ के दिशा-निर्देश (जीईसीपी) लागू करने संबंधी आदेश देना अत्यंत प्रासंगिक है। बेशक स्कूलों में बच्चों को अनुशासन सिखाना चाहिए, उन्हें अच्छा नागरिक बनने की सीख देनी चाहिए, लेकिन इन सबमें मारपीट के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए। बच्चे को मार-मार कर पढ़ाना उचित तरीका नहीं है। यह भी एक भ्रम है कि बच्चे पिटाई के डर से खूब पढ़ते हैं। विभिन्न अनुभवों से पता चलता है कि बच्चे पिटाई के डर से किताब लेकर तो बैठ जाते हैं, लेकिन उनके दिलो-दिमाग पर डर छाया रहता है। इससे वे अपनी क्षमता का सही तरह से उपयोग नहीं कर पाते। बच्चे को डंडे के जोर से न्यूटन, आइंस्टीन नहीं बनाया जा सकता। हर विद्यार्थी में कोई खूबी होती है। एक कुशल शिक्षक उसे पहचान लेता है और विभिन्न विधियों से विद्यार्थी को प्रोत्साहित करता है। सोशल मीडिया पर आए दिन ऐसी पोस्ट वायरल होती रहती हैं, जिनमें दावा किया जाता है कि किसी स्कूल में शिक्षक ने विद्यार्थी को बुरी तरह पीट दिया। कई बार ऐसी मारपीट के गंभीर परिणाम निकलते हैं। ऐसे मामलों में या तो बच्चा बुरी तरह घायल हो जाता है या उसकी मौत हो जाती है। उस स्थिति में शिक्षक की नौकरी और प्रतिष्ठा तो जाती ही हैं, जेल जाने की नौबत भी आ जाती है। ऐसी स्थिति से बचना चाहिए। यह भी बहुत बड़ी ग़लत-फ़हमी है कि जो शिक्षक सबसे ज्यादा पिटाई करते हैं, उनके विद्यार्थी पढ़ाई-लिखाई में ज्यादा रुचि लेते हैं और उनका परिणाम बेहतर आता है। राजस्थान में झुंझनूं जिले के एक सरकारी स्कूल में विज्ञान के शिक्षक अपने विषय के बड़े विद्वान थे। हालांकि वे अपनी विद्वता से ज्यादा बच्चों की पिटाई के लिए जाने जाते थे। उनके कक्षा में कदम रखते ही दहशत छा जाती थी। कई छात्र तो पहले ही गायब हो जाते थे। जिस दिन गृहकार्य की जांच या प्रश्न पूछने की बारी आती, अनुपस्थित छात्रों की संख्या और बढ़ जाती। दूसरे दिन वे शिक्षक महोदय ऐसे छात्रों को पीट-पीटकर अधमरा कर देते थे।

चूंकि उस ज़माने में सोशल मीडिया नहीं था। अख़बारों की पहुंच भी सीमित थी। इसलिए मारपीट के किस्से स्कूल तक ही सीमित रहते थे। उनके खिलाफ एक बार बगावत भी हुई, लेकिन अगले दिन प्रार्थना-सभा में जोरदार पिटाई कर उसे दबा दिया गया। एक दिन उन्होंने दसवीं कक्षा के छात्र की पिटाई करते हुए ऐसी जगह मुक्का मारा, जिससे वह लड़का बुरी तरह तड़प उठा। उसे आनन-फानन में नजदीक ही एक क्लिनिक ले जाया गया। यह सिलसिला लगभग तीन वर्षों तक जारी रहा। जिस दिन उन शिक्षक महोदय का तबादला हुआ, छात्रों ने एक-दूसरे को बधाई दी। अगर उन तीन वर्षों की रिपोर्ट बनाई जाए तो पाएंगे कि इतनी मार-कुटाई के बावजूद बच्चों के प्रदर्शन में कोई खास सुधार नहीं आया था। बल्कि कई बच्चे पढ़ाई में पिछड़ गए और कुछ ने तो पढ़ाई छोड़ दी। विज्ञान जैसे विषय को पढ़ते समय बच्चों में जिज्ञासा पैदा होनी चाहिए थी, लेकिन उन पर डर हावी रहा। कई बच्चे, जो अपनी पूरी कोशिश के बावजूद पिटाई से नहीं बच पाते थे, बाद में यह कहकर पढ़ाई से दूर होने लगे कि पिटाई तो होनी ही है ... दो डंडे ज्यादा खा लेंगे ... इतनी मेहनत भी क्यों करें? कई स्कूलों की प्रार्थना-सभाओं में पिटाई का काफी चलन रहा है। कोई विद्यार्थी समय पर नहीं आया, किसी के बाल बड़े हैं, नाखून बड़े हैं ... तो मुर्गा बनाकर धमाधम पिटाई शुरू हो गई! जब दिन की शुरुआत ही ऐसी होगी तो बच्चा क्या पढ़ेगा? आश्चर्यजनक रूप से कई बच्चे बार-बार एक ही वजह को लेकर पिटते रहते हैं, क्योंकि शिक्षक का ध्यान पिटाई की ओर तो है, सुधार की ओर नहीं है। जो विद्यार्थी बार-बार देर से स्कूल आए, उससे इसकी वजह पूछनी चाहिए। जरूरी हो तो उसके माता-पिता को बुलाकर समाधान करना चाहिए। बड़े बाल और बड़े नाखून का होना भी कोई ऐसी समस्या नहीं है, जिसका समाधान नहीं किया जा सकता। (विशेष परिस्थितियों में) बच्चे के माता-पिता से इजाजत लेकर स्कूल में बाल-नाखून काटने-संवारने के लिए उचित कदम उठाए जा सकते हैं। जापान में शुरुआती कक्षाओं के बच्चों को स्कूलों में इसी तरह स्वच्छता का संदेश दिया जाता है। शिक्षा का उद्देश्य सर्वांगीण विकास होना चाहिए। मारपीट से किया गया 'बदलाव' स्थायी नहीं होता।

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