समझ से परे!

हम 21वीं सदी में सुधारों का रास्ता छोड़कर साठ-सत्तर के दशक के तौर-तरीकों से चुनाव नहीं करवा सकते

आज भारतीय मतदाता ईवीएम के जरिए जनप्रतिनिधि चुन रहा है तो यह देश के लोकतंत्र के साथ ही वैज्ञानिक सामर्थ्य की भी विजय है

कुछ 'बुद्धिजीवी' इस बात को लेकर बार-बार 'माहौल बनाने' की कोशिश में क्यों जुट जाते हैं कि ईवीएम के कारण 'निष्पक्ष चुनाव' संभव नहीं हैं? मतपत्रों के दौर में लौट जाने की उनकी तीव्र इच्छा समझ से परे है! वे ईवीएम को हटवाकर मतपत्रों से चुनाव कराने का अनुरोध लेकर उच्चतम न्यायालय चले जाते हैं, लेकिन वहां उनके इस कदम पर नाखुशी जताई जाती है। निस्संदेह भारत में चुनाव प्रक्रिया बहुत बड़ा काम है। इसके लिए मजबूत तंत्र की जरूरत होती है। हम 21वीं सदी में सुधारों का रास्ता छोड़कर साठ-सत्तर के दशक के तौर-तरीकों से चुनाव नहीं करवा सकते। दुनिया के कई देशों के अधिकारी हर साल भारत आकर हमारे अनुभवों से जानने-सीखने की कोशिश करते हैं। उनके लिए यह किसी आश्चर्य से कम नहीं कि इतनी बड़ी आबादी वाला देश किस तरह चुनाव सुधारों को अपनाते हुए आज ईवीएम का बटन दबाकर अपने प्रतिनिधि चुन रहा है! आजादी के बाद जब भारत में संविधान बना, मतदान, जनप्रतिनिधि, लोकतंत्र आदि के बारे में लोगों की जानकारी में वृद्धि हुई, तब पश्चिम में 'बुद्धिजीवियों' का एक वर्ग हमारा मजाक उड़ाया करता था। उसका दृढ़ विश्वास था कि 'भारत में लोकतंत्र कभी नहीं पनप सकेगा, क्योंकि लोगों को इसकी आदत नहीं है और उनके जीवन में इतने अभाव हैं कि वे उन्हें दूर करने में ही रुचि लेंगे, न कि लोकतंत्र की फिक्र करेंगे।' आज गर्व से कह सकते हैं कि हमने पश्चिम के उन कथित बुद्धिजीवियों को ग़लत साबित कर दिया। भारत की जनता समय के साथ अधिक जागरूक होती गई। उसने जनप्रतिनिधियों का स्वागत किया तो उनसे तीखे सवाल भी पूछे। उसने धूमधाम से सरकारें बनाईं तो उसी धूमधाम से उन्हें विदा भी किया।

आज भारतीय मतदाता ईवीएम के जरिए जनप्रतिनिधि चुन रहा है तो यह देश के लोकतंत्र के साथ ही वैज्ञानिक सामर्थ्य की भी विजय है। अगर किसी व्यक्ति / संगठन के पास इस बात के ठोस प्रमाण हैं कि कहीं दूर बैठे-बैठे ही ईवीएम (वह भी लाखों की तादाद में) के आंकड़ों से छेड़छाड़ की जा सकती है, तो उसे अवश्य न्यायालय जाना चाहिए। वहां अपने प्रमाण प्रस्तुत करने चाहिएं। मात्र यह कह देने से कि 'मुझे लगता है कि ईवीएम में गड़बड़ हो सकती है', देश कई दशक पुराने दौर में नहीं लौट सकता। मतपत्रों की वापसी की मांग के समर्थन में यह तर्क दिया जाता है कि 'यूरोप के कई विकसित देश भी पुराने तरीके से मतदान करवाते हैं, उन्होंने तो ईवीएम को नहीं अपनाया!' उन देशों में मतपत्रों से मतदान और मतगणना करवाना कोई बहुत मुश्किल काम नहीं है। उनकी आबादी भारत के तीन-चार शहरों की आबादी से ज्यादा नहीं है। इसलिए उन देशों की चुनाव प्रक्रिया की (इस सन्दर्भ में) तुलना करना न्यायसंगत नहीं है। यह भी न भूलें कि ईवीएम को हटाकर मतपत्रों से चुनाव कराए जाएं तो समस्याएं कम नहीं होंगी, बल्कि बढ़ेंगी। याद कीजिए वह दौर, जब बूथ कब्जाकर मतपत्रों पर ठप्पे लगा दिए जाते थे। 'बाहुबली' किस्म के नेता अपने साथ उपद्रवी तत्त्वों को रखते थे, जिनका काम ही जनता को डराना, मनमर्जी से ठप्पे लगाकर मतपेटी में डालना और मतपेटी को लूटना होता था। मतगणना वाले दिन भी मतपत्रों की वजह से झगड़े होते थे। ईवीएम ने ऐसे कई झगड़ों से निजात दिला दी है। देशवासी फिर से उन्हीं झगड़ों, समस्याओं और मुसीबतों के साक्षी नहीं बनना चाहते।

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