घोषणा-पत्रों की विश्वसनीयता

राजनीतिक दलों के 'वादों की पोटली' तक जनता की पहुंच आसान हो गई है

अब घोषणा-पत्र जारी कर देने मात्र से बात नहीं बनने वाली

चुनावी मौसम में विभिन्न राजनीतिक दल अपने 'घोषणा-पत्रों' में बड़े-बड़े वादे कर रहे हैं। इन घोषणा-पत्रों में पिछले दो-तीन दशकों में जितने वादे किए गए, अगर उनमें से एक चौथाई भी लागू हो जाते तो देश की तस्वीर बदल जाती। कुछ घोषणा-पत्रों को देखकर तो ऐसा लगता है कि उनमें शब्दों का मामूली हेरफेर कर वही पुराने वादे परोस दिए गए हैं। राजनीतिक दलों को चाहिए कि वे इन घोषणा-पत्रों को लेकर आम जनता के बीच जाएं और पूछें- 'आप इन्हें कितना विश्वसनीय मानते हैं?' पहले तो चुनाव नतीजों के बाद घोषणा-पत्रों की बात आई-गई हो जाती थी, लेकिन अब इंटरनेट का दौर है। हर हाथ में मोबाइल फोन आ गया है। राजनीतिक दलों के 'वादों की पोटली' तक जनता की पहुंच आसान हो गई है। इसलिए कोई यह न समझे कि जनता सवाल नहीं करेगी और हिसाब नहीं मांगेगी। और चुनाव बाद ही क्यों? चुनाव से पहले भी उन वादों पर सवाल किए जाने चाहिएं। एक दल ने वादा कर दिया कि उसके सत्ता में आते ही सीएए निरस्त किया जाएगा! सत्ता में लाना या न लाना तो जनता-जनार्दन पर निर्भर करता है, लेकिन उस दल से यह जरूर पूछा जाना चाहिए कि अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश से आए उन पीड़ित व प्रताड़ित 'अल्पसंख्यकों' का क्या गुनाह है कि सीएए को निरस्त करने की बातें की जा रही हैं? ये लोग वहां से जिन हालात में अपनी जान, सम्मान और पहचान बचाकर आए हैं, उसको ध्यान में रखते हुए तो इन्हें राहत देने के लिए घोषणा-पत्र में विशेष योजना की बातें होनी चाहिए थीं। खैर, ज़माना वोटबैंक की राजनीति का जो है ...!

राजनीतिक दल 'जनकल्याण' के लिए बातें तो कर रहे हैं, लेकिन उन्हें धरातल पर कैसे उतारेंगे? अगर इसका कोई रोड मैप भी बताते तो उनके वादे ज्यादा विश्वसनीय होते। यह भी रोचक है कि प्राय: राजनीतिक दल केंद्र की सत्ता में आने के लिए जो वादे करते हैं, उन्हें उन राज्यों में बखूबी लागू नहीं कर पाते, जिनमें उनकी सरकारें हैं। विद्यार्थियों को मुफ्त व गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, युवाओं को रोजगार, बुजुर्गों के लिए बेहतरीन स्वास्थ्य सुविधाएं, भ्रष्टाचार से मुक्ति, हर सरकारी काम में तेजी ... जैसी बातें हर दल के घोषणा-पत्र में मिल जाएंगी। इन वादों को पहले उन राज्यों में तो प्रभावी ढंग से धरातल पर उतारकर दिखाएं, जहां आपकी सरकारें हैं। यह भी एक विडंबना है कि हम 21वीं सदी में उन समस्याओं से घिरे हुए हैं और राजनीतिक दल हर बार उन्हें घोषणा-पत्रों में भी जगह दे देते हैं, जिनका समाधान पिछली सदी में ही हो जाना चाहिए था। आज मुफ्त व गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, सबको रोजगार, बेहतरीन स्वास्थ्य सुविधाओं, पारदर्शिता, जवाबदेही और सरकारी कामों में तेजी जैसे वादे करने की नौबत ही नहीं आनी चाहिए थी। ये तो बहुत बुनियादी सुविधाएं हैं, जो सत्तर-अस्सी के दशक तक ही सबको मिल जानी चाहिए थीं। बहरहाल, इनसे संबंधित मुद्दे अपनी जगह मौजूद हैं, तो उन पर बात करनी होगी। साथ ही राजनीतिक दलों को यह बताना चाहिए कि एआई के दौर में राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर उनके क्या विचार हैं? वे चीन-पाक की उद्दंडता पर काबू पाने के लिए क्या करना चाहेंगे? नौकरी का मतलब सिर्फ सरकारी नौकरी नहीं होता। निजी क्षेत्र में रोजगार के अधिकाधिक अवसर पैदा करने और स्वरोजगार को बढ़ावा देने के लिए क्या करेंगे? घुसपैठ नियंत्रण और देश में अवैध ढंग से रहने वालों की पहचान कर कार्रवाई के लिए क्या कदम उठाएंगे? देश में नकली मुद्रा के प्रसार, ऑनलाइन अपराध, प्रलोभन देकर धर्मांतरण जैसी समस्याओं का समाधान कैसे करेंगे? मुद्दे तो कई हैं। नेतागण उन पर खुलकर बात तो करें। अब घोषणा-पत्र जारी कर देने मात्र से बात नहीं बनने वाली!

About The Author: News Desk