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ऐसा 'जुनून' खतरे की घंटी

आज सोशल मीडिया असत्य व आपत्तिजनक सामग्री से भरा पड़ा है, जिसे देखकर बच्चों के कोमल मन पर बुरा असर पड़ता है

ऐसा 'जुनून' खतरे की घंटी
स्कूली बच्चे अपने संगी-साथियों से जल्दी प्रभावित होते हैं

अक्सर लोग अपने जीवन में किसी-न-किसी व्यक्ति से प्रभावित होते हैं। वह कोई फिल्मी सितारा, खिलाड़ी, गायक, लेखक, वक्ता आदि हो सकता है। आध्यात्मिक गुरुओं के प्रति भी बहुत श्रद्धा होती है। लोग इन सबसे मिलने की इच्छा रखते हैं, जो कि स्वाभाविक है, लेकिन जब यह इच्छा एक खास तरह का 'जुनून' बन जाए, वह भी उस उम्र में, जब देश-दुनिया की पर्याप्त समझ न हो, तो इसके परिणाम गंभीर हो सकते हैं। 

तमिलनाडु के करूर जिले के एक गांव की तीन स्कूली छात्राओं का द. कोरियाई बैंड बीटीएस के सदस्यों से मिलने के लिए चुपचाप घर से निकल जाने की घटना चौंकाती तो है, साथ ही यह भी बताती है कि इन दिनों स्कूली बच्चों के दिलो-दिमाग पर मोबाइल फोन का बहुत गहरा असर हो रहा है। माता-पिता अपने बच्चों की जिद और कुछ मामलों में जरूरत को देखते हुए मोबाइल फोन तो लाकर दे देते हैं, लेकिन उनके पास यह जानने के लिए समय नहीं होता कि इसके जरिए बच्चा कैसी सामग्री देख रहा है! बेशक मोबाइल फोन पर अच्छी, शिक्षाप्रद और प्रेरक सामग्री भी देखी जा सकती है। 

आज सोशल मीडिया असत्य व आपत्तिजनक सामग्री से भरा पड़ा है, जिसे देखकर बच्चों के कोमल मन पर बुरा असर पड़ता है। ज्यादातर स्कूलों में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है, जहां बच्चों को मोबाइल फोन और इंटरनेट जैसी तकनीक के सही इस्तेमाल को लेकर जागरूक किया जाए, उनकी बात सुनी जाए। पाठ्यक्रम, टेस्ट व परीक्षा आदि के बाद इतना समय ही नहीं बचता कि हर बच्चे से खुले माहौल में बात की जाए। 

प्राय: बड़े शहरों में माता-पिता, दोनों के कामकाजी होने पर बच्चे उनकी अनुपस्थिति में इंटरनेट की दुनिया में ज्यादा रुचि लेने लगते हैं। कई मामलों में यह देखा गया है कि बच्चे के काफी देर तक मोबाइल फोन चलाने के बाद जब उसे टोका जाता है तो वह कहता है कि उसने कुछ समय पहले ही फोन लिया था और वह सिर्फ पांच मिनट और चलाएगा! फिर, उसे पता ही नहीं चलता कि ये पांच मिनट कब पचास मिनट बन गए!

स्कूली बच्चे अपने संगी-साथियों से जल्दी प्रभावित होते हैं। अगर उनमें से कोई किसी चर्चित व्यक्ति का प्रशंसक है तो उसे समान रुचि वाले साथी मिल ही जाते हैं। इस दौरान भावनाओं की प्रबलता होती है, वास्तविकता से परिचय कम होता है। करूर जिले के गांव से जो बच्चियां द. कोरिया जाना चाहती थीं, उन्हें नहीं मालूम था कि वहां तक पहुंचने के लिए पासपोर्ट, वीजा, हवाई टिकट जैसी चीजों की जरूरत होती है। 

यह तो पुलिस अधिकारियों की सूझबूझ थी, जिन्होंने इन्हें सकुशल घर पहुंचा दिया। इस तरह घर से जाना, बंदरगाह से यात्रा करने की सोचना, रात को ट्रेन छूटना ... उन्हें किसी बड़ी मुसीबत में डाल सकता था। अधिकारियों ने इनके लिए वेल्लोर जिले के एक सरकारी केंद्र में परामर्श सत्र का आयोजन किया, जो प्रशंसनीय है। उन्होंने बच्चियों के माता-पिता के लिए भी ऐसे सत्र आयोजित किए। स्कूलों में बच्चों और उनके माता-पिता के लिए समय-समय पर ऐसे सत्रों का आयोजन होना चाहिए। बच्चों को 'रील लाइफ़' और 'रिअल लाइफ़' में अंतर समझाना चाहिए। 

किसी विख्यात व्यक्ति, किरदार या बैंड का प्रशंसक होना ग़लत नहीं है, लेकिन उसके प्रति ऐसा जुनून या दीवानगी नहीं होनी चाहिए, जो जीवन को संकट में डाल दे। पहले भी कई बच्चे 'सुपर हीरो' से प्रभावित होकर ऐसे कदम उठा चुके हैं, जिनके भयानक परिणाम हुए थे। पिछले दो दशकों में ऐसे कई मामले सामने आए, जब बच्चों ने जानबूझकर खुद को मुसीबत में डाला, क्योंकि उन्हें विश्वास था कि उनका 'सुपर हीरो' उन्हें बचाने आएगा! 

एक बच्चा अपने पसंदीदा अभिनेता की फिल्म देखकर उससे इतना प्रभावित हुआ कि असल ज़िंदगी में उसकी नकल करने लगा। एक बार उसने फिल्म में देखा कि अभिनेता ने जिस व्यक्ति का किरदार निभाया, वह घर छोड़कर चला गया और वर्षों बाद 'बड़ा आदमी' बनकर लौटा। बच्चे ने भी यही करना चाहा और किसी ट्रेन में बैठ गया। उसके माता-पिता ने कई दिनों बाद बड़ी मुश्किल से उसे ढूंढ़ा। ऐसे मामलों में परिवार के बड़े सदस्यों और शिक्षकों को सख्ती नहीं बरतनी चाहिए। स्नेह और सूझबूझ से काम लेते हुए समझाना चाहिए।

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