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शब्दों की मर्यादा

इस साल कई राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं

शब्दों की मर्यादा
सभी पार्टियों के नेतागण सार्वजनिक जीवन में शब्दों की मर्यादा का विशेष रूप से पालन करने का संकल्प लें

गुजरात उच्च न्यायालय द्वारा ‘मोदी उपनाम’ संबंधी टिप्पणी को लेकर आपराधिक मानहानि मामले में कांग्रेस नेता राहुल गांधी की दोषसिद्धि पर रोक लगाने का अनुरोध करने वाली याचिका को खारिज किया जाना उनके और पार्टी के लिए बड़ा झटका है। 

जब उच्च न्यायालय में याचिका दाखिल की गई थी तो कांग्रेस नेताओं को उम्मीद थी कि यहां राहुल को राहत मिल सकती है, लेकिन न्यायालय ने याचिका खारिज करते हुए यह कह दिया कि 'वे पहले ही देशभर में 10 मामलों का सामना कर रहे हैं और निचली अदालत द्वारा दोषी ठहराने का आदेश न्यायसंगत, उचित और वैध है ... दोषसिद्धि पर रोक लगाने का कोई तर्कसंगत कारण नहीं है।' 

जैसा कि कांग्रेस नेताओं ने कहा है कि अब उच्च न्यायालय के फैसले को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी जाएगी। वहां राहुल के वकील उनका पक्ष रखेंगे और सजा रद्द करवाने की भरसक कोशिश करेंगे। इस मामले पर पूरे देश की निगाहें होंगी। अगर राहुल को उच्चतम न्यायालय से राहत मिल गई तो कांग्रेस इसे 'सत्य' की बहुत बड़ी जीत की तरह पेश कर मोदी सरकार को घेरेगी। 

वहीं, अगर फैसला अनुकूल नहीं आया तो राहुल को ऐसे 'योद्धा' की तरह पेश किया जाएगा, जिसने मोदी सरकार से टक्कर ली, लोकसभा सीट गंवाई, लेकिन 'झुके' नहीं। उस सूरत में भी कांग्रेस का रुख आक्रामक रहेगा, जैसा कि उच्च न्यायालय के फैसले के बाद प्रियंका वाड्रा ने कहा, 'राहुल गांधी इस अहंकारी सत्ता के सामने सत्य और जनता के हितों की लड़ाई लड़ रहे हैं। अहंकारी सत्ता चाहती है कि जनता के हितों के सवाल न उठें ... देश के लोगों की जिंदगियों को बेहतर बनाने वाले सवाल न उठें ... महंगाई पर सवाल न पूछे जाएं, युवाओं के रोजगार पर कोई बात न हो, किसानों की भलाई की आवाज न उठे, महिलाओं के हक की बात न हो ...।'

सवाल है- राहुल गांधी को समाज के हक के लिए आवाज उठाने से कौन रोक रहा है? न उन्हें पहले किसी ने रोका था और न आज कोई रोक रहा है। वे जरूर आवाज उठाएं और जहां आवश्यक समझें, केंद्र सरकार की कड़ी आलोचना करें, लेकिन उसके साथ यह भी ध्यान रखें कि मोदी को घेरते-घेरते शब्दों की मर्यादा कभी न भूलें। यह बात सिर्फ राहुल के लिए नहीं है, बल्कि हर नेता के लिए है, सबको मर्यादा का पालन करना चाहिए। 

जब राहुल गांधी अप्रैल 2019 में कर्नाटक के कोलार में चुनावी रैली को संबोधित कर रहे थे तो 'मोदी उपनाम' पर टिप्पणी करना ही ग़ैर-ज़रूरी था। यह तो कोई सामान्य विवेक-बुद्धि का व्यक्ति भी जानता है कि किसी अपराधी के कृत्य के लिए पूरे समाज की नीयत और ईमानदारी पर सवाल उठाना तर्क संगत नहीं है। राहुल अपने भाषण में केंद्र सरकार की कार्यशैली पर सवाल उठा सकते थे, लेकिन वे मर्यादा लांघते गए और इतना आगे निकल गए कि संसद सदस्यता खतरे में पड़ गई। 

प्राय: ऐसा होता है कि कुछ नेतागण चुनावी माहौल में भावनाओं के वशीभूत होकर ऐसे शब्दों का प्रयोग कर बैठते हैं, जिनसे उन्हें बचना चाहिए। उसके बाद उन्हें सार्वजनिक माफी मांगते हुए अपनी भूल स्वीकार कर लेनी चाहिए। इससे उनका कद घटता नहीं, बल्कि उन्हें विनम्र समझा जाता है। अगर राहुल भी ऐसा करते तो बात वहीं खत्म हो जाती। 

न जाने क्यों उनके सलाहकारों ने यह सुझाव नहीं दिया! इसके उलट, वे सावरकर का उल्लेख कर अड़े रहे और मामले को आगे बढ़ाते रहे। नेतागण आरोप-प्रत्यारोप लगाते रहते हैं, विवादित टिप्पणियां भी कर देते हैं। उन पर मुकदमे हो जाते हैं, लेकिन किसने सोचा था कि यह टिप्पणी राहुल गांधी को इतनी महंगी पड़ जाएगी? 

इस साल कई राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। फिर अगले साल लोकसभा चुनाव हैं। सभी पार्टियों के नेतागण इस मामले से शिक्षा ग्रहण करें और सार्वजनिक जीवन में शब्दों की मर्यादा का विशेष रूप से पालन करने का संकल्प लें।

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