जांकी रही भावना जैसी

बिहार के शिक्षा मंत्री के बाद सपा नेता स्वामी प्रसाद मौर्य भी सुर्खियां बटोरने के इच्छुक जान पड़ते हैं

समय के साथ सामाजिक मान्यताओं में बदलाव आता है

इन दिनों कुछ नेतागण रामचरितमानस के खिलाफ अनाप-शनाप बयानबाजी कर चर्चा में आने का कुप्रयास कर रहे हैं। देश में एक वर्ग ऐसा है, जो सनातन धर्म के ग्रंथों को ठीक से पढ़े और समझे बिना अनर्गल बयान देता रहता है, ताकि लोग उसे 'प्रगतिशील', 'उदारवादी' और 'बुद्धिजीवी' समझें। बिहार के शिक्षा मंत्री चंद्रशेखर के बाद समाजवादी पार्टी (सपा) के वरिष्ठ नेता और उत्तर प्रदेश के पूर्व कैबिनेट मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य भी विवादित बयान देकर सुर्खियां बटोरने के इच्छुक जान पड़ते हैं। 

'बदनाम होंगे तो क्या नाम नहीं होगा' की तर्ज पर ये लोग बिना प्रसंग जाने रामचरितमानस पर झूठे आरोप लगा रहे हैं। सही प्रसंग समझे बिना किस तरह अर्थ का अनर्थ होता है, इसे साधारण-से उदाहरण द्वारा जानने की कोशिश करते हैं। 

एक वाक्य है- 'कहां जाते हो बेटा? इधर आओ तो।' अगर आप मंदिर गए हों और वहां पुजारीजी आपसे यह कहें तो इसका अर्थ उस प्रसंग के अनुसार यह होगा कि वे आपको प्रसाद तथा आशीर्वाद देने के लिए बुला रहे हैं। अगर यही वाक्य माता-पिता बोलें तो इसका अर्थ होगा कि आप बाहर जा रहे थे कि उन्हें कोई ज़रूरी काम याद आ गया, इसलिए बुला रहे हैं। इन दोनों प्रसंगों में यह वाक्य प्रेम और अपनत्व से परिपूर्ण दिखता है। 

अब तीसरा प्रसंग देखिए। अंधेरी रात है, सुनसान रास्ता है और किसी राहगीर को डाकू मिल जाएं और वे उसे कहें, 'कहां जाते हो बेटा? इधर आओ तो।' यह सुनते ही राहगीर के मन में सिहरन दौड़ जाएगी। शब्द वे ही हैं, लेकिन प्रसंग बदला तो अर्थ ही बदल गया। 

आज रामचरितमानस की कुछ चौपाइयों को महिलाओं और एक समुदाय के खिलाफ बताकर भ्रम फैलाने का षड्यंत्र रचा जा रहा है, ताकि कथित प्रगतिशीलता के नाम पर सनातन धर्मावलंबियों की आस्था पर लगातार प्रहार किया जा सके। ये 'बुद्धिजीवी' यहां भी प्रसंग को समझे बिना आधा-अधूरा सच बता रहे हैं।

अगर आप रामचरितमानस पढ़ते हैं तो यह भी याद रखना होगा कि गोस्वामी तुलसीदासजी ने इसकी रचना किस कालखंड में की थी, उस समय की सामान्य परंपराएं क्या थीं, कैसी शासन पद्धति थी, कैसी मान्यताएं थीं, किस विषय के प्रति लोगों का दृष्टिकोण कैसा था। उन सबको ध्यान में रखते हुए ही ग्रंथ का अध्ययन करना उचित है। समय के साथ सामाजिक मान्यताओं में बदलाव आता है। 

किसी ज़माने में राजा-महाराजा शिकार खेलते थे। तब इसे जनरक्षा का काम समझा जाता था। आज शिकार खेलने को अच्छा नहीं माना जाता। अभिनेता सलमान खान से पूछिए कि शिकार खेलने की क्या कीमत चुकानी पड़ सकती है। हमारी कहानियों की शुरुआत 'एक राजा था और उसकी सात रानियां थीं' से होती है। इससे स्पष्ट है कि देश में एक ज़माना था, जब सात पत्नियां रखना बहुत प्रतिष्ठासूचक माना जाता था। साधारण लोग सात नहीं रख सकते थे, लेकिन उनके लिए दो रखना सामान्य बात थी, जिस पर किसी को आश्चर्य नहीं होता था। आज इसे सामाजिक एवं संवैधानिक स्वीकार्यता नहीं है। 

साहित्य में कोई पात्र कौनसा संवाद बोल रहा है, इसे उसके परिवेश और समय से अलग करके नहीं देखा जा सकता। समय के साथ शब्द भी यात्रा करते हैं, उनके अर्थ भी बदल जाते हैं। कुछ दशक पहले तक समाज में ऐसे शब्द प्रचलित थे, जिन्हें सामान्य समझा जाता था। आज उन्हें शालीन नहीं समझा जाता है। अंग्रेज़ी शब्दकोश में ऐसे दर्जनों शब्द मिल जाएंगे, जिन्हें एक शताब्दी पहले अत्यंत अपमानजनक माना जाता था, आज वे आदरसूचक बन गए हैं। 

उस कालखंड में अगर कोई व्यक्ति किसी गरीब बच्चे की हालत पर दया कर उसे अपने यहां काम पर रख लेता तो वह बहुत दयालु कहलाता। अगर आज ऐसी 'दया' दिखाकर काम पर रख ले तो बालश्रम करवाने के अपराध में जेल जाना पड़ सकता है। इसलिए शब्दों के साथ प्रसंग और भावना को नहीं भूलना चाहिए, क्योंकि 'जांकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी।'

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