इफ्फी के जूरी प्रमुख नदव लापिद ने हिंदी फिल्म 'द कश्मीर फाइल्स' को ‘दुष्प्रचार करने वाली' और ‘भद्दी’ करार देकर हिंसा पीड़ित कश्मीरी पंडितों का मज़ाक तो उड़ाया ही है, उन्होंने मानवता को भी शर्मसार किया है। आखिर कोई शख्स इतना बेरहम कैसे हो सकता है? वह भी इजराइली, जिसके पूर्वज कुछ दशक पहले ही नरसंहार से गुजरे हैं!
जब इज़राइल नहीं बना था और दुनिया के अलग-अलग देशों में यहूदियों को सताया जा रहा था, उनके साथ आए दिन अपमानजनक घटनाएं हो रही थीं, तब भारत ने उन्हें हृदय से लगाया था। हमें उन यहूदियों पर गर्व है, जिन्होंने भारत के लिए योगदान दिया, जिनमें ले. जनरल जैकब भी एक थे। आश्चर्य होता है कि आज एक इजराइली ने कश्मीरी पंडितों के आंसुओं का इतना बड़ा अपमान किया है!
कश्मीरी पंडित वे लोग हैं, जो नब्बे के दशक में कश्मीर घाटी में अपना परिवार, घर, संपत्ति सबकुछ हिंसा की आग में गंवाकर आए। वे अपने ही देश में शरणार्थी हो गए, लेकिन उनका धैर्य, सहिष्णुता देखिए ... आज तक एक भी कश्मीरी पंडित ने हिंसा का सहारा नहीं लिया। यह उनका देश और मानवता के प्रति प्रेम है, जिसे लापिद जैसे कथित 'बुद्धिजीवी' नहीं समझ पाएंगे।
कश्मीरी पंडितों ने अपनी मेहनत से फिर सबकुछ जुटाया और आज देश-दुनिया में सम्मानपूर्वक जीवन यापन कर रहे हैं। उन्हें किसी की सहानुभूति नहीं चाहिए। वे इस बात के भी मोहताज नहीं कि लापिद जैसे 'फिल्मज्ञानी' उनके लिए आवाज उठाएं। यह कार्य भारतवासी कर रहे हैं, लेकिन किसी को यह अधिकार नहीं कि जो कुछ उनके साथ अप्रिय घटित हुआ, उसका मजाक उड़ाए।
अब देशवासियों को इस मामले में गंभीर होना पड़ेगा। सेकुलरिज्म, उदारवाद और कला के नाम पर भारतीय संस्कृति और भारतीयों का अपमान बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। दुनिया देख चुकी है कि सनातन धर्म के प्रतीकों और देवी-देवताओं का अपमान करने वालों की फिल्में अब किस तरह औंधे मुंह गिर रही हैं। इसे फिल्म निर्माता और अभिनेता वर्ग स्पष्ट संकेत समझे।
कश्मीरी पंडितों पर हुए अत्याचार को उजागर करने के लिए 'द कश्मीर फाइल्स' में कहीं कोई तथ्यात्मक भूल हुई हो तो हर किसी को अधिकार है कि वह उसका खुलासा करे। लापिद इससे चार हाथ आगे निकलकर इसे ‘दुष्प्रचारक' और ‘भद्दी’ बता रहे हैं तो उनसे पूछा जाना चाहिए- 'आपके मुताबिक इस फिल्म में क्या होना चाहिए था? क्या फिल्म उद्योग उसी परिपाटी पर चलता रहे, जिसमें हीरो-हीरोइन हों, उनका प्रेम-प्रसंग जारी रहे, गाना-बजाना हो, फिर शादी हो और दि एंड?'
लापिद के बयान के बाद कथित 'बुद्धिजीवियों' का एक खेमा हर्षित है। उसका मानना है कि इतिहास में हिंदुओं पर हुए अत्याचारों को लेकर कोई बात न की जाए, उन्हें मीडिया, फिल्मों में कोई स्थान न मिले। उनकी यह 'बौद्धिकता' समझ से परे है।
हमारा मानना है कि अत्याचार अनुचित है। यह नहीं होना चाहिए। अगर किसी के साथ भी होता है तो उसे तथ्यों के साथ उजागर करना चाहिए। भले ही वह विश्वयुद्ध कालीन अत्याचार हो या कश्मीर घाटी में पंडितों पर अत्याचार या कोई और ... घटना। उन पर आधारित खबरों, फिल्मों आदि पर अध्ययन, शोध, मनन एवं चिंतन होना चाहिए और उससे बेहतर भविष्य का रास्ता निकालना चाहिए, ताकि फिर ऐसी घटना किसी के साथ न हो। अगर कोई अपने शब्दों से यह मंशा प्रकट करता है कि 'अत्याचार पर बोलना ही नहीं चाहिए, उसे छुपाकर रखना चाहिए, सिर्फ एक खास पक्ष पर बोलना चाहिए, बाकी पर चुप्पी साध लेनी चाहिए'; तो निस्संदेह उसके मन में खोट है।
ऐसा व्यक्ति किसी दिन यह भी कह सकता है कि 'कश्मीर घाटी में कश्मीरी पंडित रहते ही नहीं थे और अत्याचार जैसी कोई घटना हुई ही नहीं थी!' यह स्पष्ट रूप से धूर्तता होगी, जिससे सतर्क रहने की जरूरत है।