सशक्त समाज, सशक्त देश

देश में आज भी युवा सरकारी नौकरी ही चाहता है


राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के सरसंघचालक मोहन भागवत ने विजया दशमी पर अपने उद्बोधन में जनसंख्या संतुलन को लेकर जो विचार व्यक्त किए हैं, वे अत्यंत प्रासंगिक हैं। यह कार्य बहुत पहले हो जाना चाहिए था, लेकिन पूर्ववर्ती सरकारों ने रुचि/हिम्मत नहीं दिखाई। संभवतः उन्हें भय रहा हो कि ऐसे निर्णय से उनका वोटबैंक टूट जाएगा, इसलिए जैसा चल रहा है, वैसा चलने देते हैं! आज जनसंख्या विस्फोट विकराल समस्या बन चुका है। देश के पास संसाधन सीमित हैं। नौकरियां सीमित हैं। ऐसे में चाहे कोई भी सरकार हो, वह जब तक अस्पताल, स्कूल, बसों, ट्रेनों समेत मूलभूत सुविधाओं का इंतजाम करेगी, जनसंख्या तुलनात्मक रूप से इतनी बढ़ चुकी होगी कि यह उनके लिए अपर्याप्त ही होगा।

प्रायः जनसंख्या नियंत्रण के लिए चीन का उदाहरण दिया जाता है। निस्संदेह चीन ने बेलगाम बढ़ती जनसंख्या पर नियंत्रण पा लिया है, उसने आर्थिक विकास भी किया है, लेकिन उसकी नीति दोषपूर्ण रही है, जिसका दुष्परिणाम आज दिखाई दे रहा है। एक संतान नीति दूरदर्शितापूर्ण निर्णय नहीं थी, उससे भी भारत को सावधान रहना होगा। भागवत ने अपने भाषण में इसकी ओर भी संकेत किया था। देश में जनसंख्या के दबाव के सामने सरकारी नौकरियां गर्म तवे पर पानी की कुछ बूंदों की तरह हैं, जो सबको संतुष्ट नहीं कर सकतीं।

देश में आज भी युवा सरकारी नौकरी ही चाहता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भले ही स्टार्टअप और स्वरोजगार को बढ़ावा देने के लिए आह्वान करते रहें, लेकिन धरातल की वास्तविकता यही है कि युवा सरकारी नौकरी को प्राथमिकता देता है। निजी क्षेत्र में नौकरियों को लेकर सुधार होने चाहिएं। यहां भी नौकरियां तभी पैदा होंगी, जब देश में रोजगार को बढ़ावा देने वाली नीतियों का निर्माण किया जाएगा। आज देश को इसकी अत्यावश्यकता है।

भागवत का यह कहना भी उचित है कि मंदिर, पानी और श्मशान सबके लिए समान होने चाहिएं। शहरों में तो यह काफी हद तक हो चुका है, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में अब भी कहीं-कहीं ऐसे बिंदु मौजूद हैं, जो हिंदू समाज के सौहार्द में रुकावट पैदा करते हैं। हम उन प्रभु श्रीराम की संतान हैं, जिन्होंने शबरी के जूठे बेर खाने से लेकर वनवासी बंधुओं को हृदय से लगाने, सेना बनाने तक कहीं भेदभाव नहीं किया। इसका परिणाम लंका विजय के रूप में हम हर वर्ष मनाते हैं। विजया दशमी के इस संदेश को मात्र एक दिन के उत्सव तक सीमित न रखते हुए अपने सामाजिक जीवन का अभिन्न अंग बनाना होगा।

इसी भारत भूमि पर कई सामाजिक सुधारक हुए। उन्होंने अपने समय में प्रचलित कुरीतियों के खिलाफ आवाज उठाई, समाज को बेहतर बनाने में योगदान दिया। सुधार और सद्भाव की यह प्रक्रिया चलती रहनी चाहिए। सुधार से समाज सशक्त होगा, सद्भाव से एकजुट होगा। यही मंत्र श्रीराम ने दिया है। हमें सशक्त इतना बनना है कि किसी भी बाहरी चुनौती का जवाब दे सकें और सद्भाव इतना रखना है कि कोई भी दुष्ट शक्ति हममें फूट न डाल सके। इसी से सुखी एवं शक्तिशाली भारत का निर्माण होगा।

भागवत ने नई शिक्षा नीति और अंग्रेजी भाषा के मुद्दे पर जो कहा, उस पर राष्ट्रीय बहस होनी चाहिए। निस्संदेह इस युग में अंग्रेज़ी का अध्ययन आवश्यक है, लेकिन ऐसा न हो कि ‘आधुनिक’ दिखने की चाह में अपनी भाषाओं को कमतर समझने लगें। चीन, जापान, रूस, जर्मनी, फ्रांस, इजराइल समेत ऐसे दर्जनों देश हैं, जहां प्रारंभिक से लेकर मेडिकल और पीएचडी तक पढ़ाई अपनी भाषाओं में होती है। भारत में भी हर पाठ्यक्रम अंग्रेजी के साथ स्थानीय भाषाओं में उपलब्ध होना चाहिए।

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