अक्षम्य अपराध

बांग्लादेश मुक्ति संग्राम में उत्पीड़न का सामना करने वाले लोगों को नजरअंदाज ही किया गया है


अमेरिकी सांसद रो खन्ना और सीव चाबोट ने प्रतिनिधि सभा में प्रस्ताव पेश कर राष्ट्रपति जो बाइेडन से 1971 में पाकिस्तानी सशस्त्र बलों द्वारा पूर्वी पाकिस्तान (मौजूदा बांग्लादेश) में जातीय बंगालियों और हिंदुओं के खिलाफ किए गए अत्याचारों को नरसंहार घोषित करने का आग्रह कर साहसिक कदम उठाया है। इसके लिए इन दोनों की प्रशंसा की जानी चाहिए। 

अब तक प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध में मारे गए लोगों की पीड़ा को बड़े स्तर पर याद किया जाता रहा है, करना भी चाहिए, लेकिन बांग्लादेश मुक्ति संग्राम में उत्पीड़न का सामना करने वाले लोगों को नजरअंदाज ही किया गया है। उस युद्ध में पाकिस्तानी सेना ने लाखों लोगों की चुन-चुनकर हत्या की थी। खासतौर से हिंदू उनके निशाने पर थे। पाकिस्तान की बर्बर सेना ने पुरुषों और बच्चों की हत्याएं कीं और महिलाओं से दुष्कर्म किया। ये युद्ध-अपराध इतने गंभीर थे कि अगर वास्तविकता सामने आ जाए तो पाकिस्तान के सैन्य अधिकारी हिटलर और मुसोलिनी से भी बड़े अपराधी घोषित हो जाएं, लेकिन इस दिशा में खास काम नहीं हुआ। भारत की ओर से भी उदासीनता का ही वातावरण रहा, लिहाजा उन पीड़ितों को आज तक इन्साफ नहीं मिल पाया है। 

उक्त अमेरिकी सांसदों की हिम्मत की दाद देनी होगी कि इन्होंने एक कोशिश तो की। यह कार्य हमें करना चाहिए था। खासतौर से भारत का अंग्रेजी मीडिया चाहता तो उन पीड़ितों के साथ जो कुछ हुआ, उससे पश्चिम को भलीभांति अवगत करा सकता था। प्रायः पश्चिमी देश भी दोहरा रवैया अपनाते हैं। वे हिंदुओं के उत्पीड़न पर वैसी त्वरित प्रतिक्रिया नहीं देते, जैसी देनी चाहिए। यही हाल वहां की सरकारों का है, जो मानवाधिकारों का परचम लिए फिरती हैं, लेकिन पाकिस्तान में आए दिन हिंदू बच्चियों के जबरन धर्मांतरण पर चुप्पी साधे रहती हैं। यही नहीं, वे तो पाकिस्तान को आर्थिक सहायता देती हैं, जिसका उपयोग वह आतंकवाद और उत्पीड़न को बढ़ावा देने के लिए करता है।

बांग्लादेश मुक्ति संग्राम को पांच दशक से ज्यादा समय हो गया, लेकिन उस युद्ध के पीड़ितों में से बहुत लोग मौजूद हैं। पाकिस्तानी सेना के जिन अधिकारियों, सैनिकों ने उत्पीड़न किए, उनमें भी बहुत लोग जिंदा हैं। अगर उन्हें युद्ध अपराध का दोषी ठहराया जाता है तो न्याय की दिशा में महत्वपूर्ण कदम होगा। राष्ट्रपति बाइडेन को अब विवेकपूर्ण तरीके से निर्णय लेते हुए उन पीड़ितों से सहानुभूति दिखाते हुए अपराधियों को चिह्नित करना चाहिए। यह दुखद ही है कि मुक्ति संग्राम के इतने वर्षों बाद भी भारत के युवाओं में से बहुत कम को इसकी जानकारी है। उन्हें पता होना चाहिए कि पाकिस्तानी सेना ने कितने घृणित कृत्य किए और भारतीय सेना ने किस तरह मुक्ति दिलाई। 

अमेरिकी संसद में जिस समय यह मुद्दा उठाया जा रहा है, इसके ठीक दो माह बाद मुक्ति संग्राम में महाविजय की वर्षगांठ है। हमें 16 दिसंबर को और बड़े स्तर पर मनाते हुए, हमारी सेनाओं के शौर्य को याद करते हुए उन पीड़ितों को न्याय दिलाने के लिए भी संकल्प लेना चाहिए, जिनकी बाद में उपेक्षा की गई। कुछ लोग यह तर्क दे सकते हैं कि इतने वर्षों बाद अब उन घटनाओं की यादों को ताजा करने से क्या लाभ, क्योंकि जिन्होंने ये अपराध किए भी होंगे, वे परलोक सिधार चुके हैं। 

वास्तव में यहां समयावधि से ज्यादा महत्वपूर्ण न्याय की स्थापना है। पीड़ितों को न्याय मिलना ही चाहिए। अभी इसमें पांच दशक लग गए। अगर आने वाले कई दशक लग जाएं तो भी हमें शिथिलता नहीं बरतनी चाहिए, बल्कि न्याय के लिए एकजुट रहते हुए पीड़ितों के पक्ष में खड़े रहना चाहिए। एक दिन ऐसा जरूर आएगा, जब विश्व स्वीकार करेगा कि हां, पाकिस्तान की सेना ने बर्बरतापूर्ण अपराध किए थे ... और जनरल याह्या खान, ले. जनरल नियाजी, टिक्का खान और वे सभी सैनिक युद्ध अपराधी थे, जिन्होंने निहत्थे लोगों पर वार किए, महिलाओं से अभद्रता की। यह अक्षम्य है।

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