जनता जनार्दन

ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ अभिनेताओं में यह अहंकार आ गया कि उनकी फिल्में इसलिए चलती हैं, क्योंकि वे उनमें काम करते हैं


मनुष्य के तन के लिए जितना ज़रूरी पौष्टिक भोजन है, मन के लिए उतना ही ज़रूरी स्वस्थ मनोरंजन है। इसे सुलभ कराने में भारतीय फिल्म उद्योग का महत्वपूर्ण स्थान है। अगर बॉलीवुड की बात करें तो इसने ‘दो बीघा ज़मीन’, ‘आवारा’, ‘मदर इंडिया’, ‘आनंद’, ‘ज़ंजीर’ और ‘गदर’ जैसी अनगिनत फिल्में दी हैं, जिन्हें दर्शकों ने बहुत सराहा है, अभिनेताओं को ‘सुपरस्टार’ बनाया है। लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ अभिनेताओं में यह अहंकार आ गया कि उनकी फिल्में इसलिए चलती हैं, क्योंकि वे उनमें काम करते हैं। लिहाजा, जो बना देंगे, जनता को देखनी ही पड़ेगी। जनता तो उनकी एक झलक पाने के लिए बेताब रहती है, उनके कपड़ों, बालों और तौर-तरीकों की नकल करती है! ऐसे में कुछ अभिनेताओं, निर्माताओं और निर्देशकों को यह भ्रम हो गया था कि जनता उनकी मर्जी से चलती है।

आमिर ख़ान की नई फ़िल्म ‘लाल सिंह चड्ढा’ ने यह स्पष्ट कर दिया कि बॉलीवुड को अब इस भ्रम से बाहर निकल आना चाहिए। जनता हर बार वह नहीं देखेगी, जो आप दिखा देंगे। उसके प्रति दर्शकों में गहरी नाराज़गी है, जिसे समझना होगा। क्या वजह है कि जिन आमिर ख़ान की ‘सरफ़रोश’, ‘लगान’, ‘मंगल पांडेय’ ‘ग़जनी’, ‘थ्री इडियट्स’ और ‘दंगल’  जैसी फ़िल्मों पर जनता ने इतना प्यार लुटाया, उनकी ‘लाल सिंह चड्ढा’ दर्शकों को तरस गई?

इसमें कोई संदेह नहीं कि आमिर बॉलीवुड के बेहतरीन अभिनेताओं में से हैं। उन्हें देश की जनता ने साधारण अभिनेता से ‘सुपरस्टार’ के दर्जे तक पहुंचाया। फिर अचानक उन्हें देश में असहिष्णुता क्यों नज़र आने लगी? आमिर ने ‘पीके’ में जिस तरह हिंदू धर्म के प्रतीकों की खिल्ली उड़ाई, उस पर भी जनता ने उन्हें रिकॉर्ड कमाई दी। फिर जनता को लगने लगा कि अब आमिर ‘अति’ कर रहे हैं। इस बीच सोशल मीडिया का प्रभाव बढ़ता गया और उसने आम आदमी को ऐसा हथियार दे दिया, जिसकी पहले कल्पना ही नहीं की जा सकती थी।

सोशल मीडिया की दस्तक से पहले राजनीतिक, सामाजिक और अन्य उद्देश्यों के लिए संगठन अवश्य थे, लेकिन फिल्म के दर्शकों के लिए ऐसा कोई मंच नहीं था, जो उन्हें संगठित कर सके। यह काम सोशल मीडिया ने किया, जिसका नतीजा सामने है। अब जनता तय कर चुकी है कि मनोरंजन के नाम पर हिंदू आस्था से खिलवाड़ नहीं चलेगा। इसके लिए वह किसी भी तरह की हिंसा का सहारा नहीं ले रही। वह सोशल मीडिया के जरिए एकजुट हुई और सिनेमा घरों में जाने से परहेज किया।

लोकतंत्र में जनता को यूं ही जनता जनार्दन नहीं कहा जाता। उसने बड़े-बड़े शक्तिशाली सम्राटों के सिंहासन उलट दिए। फिर अभिनेता क्या हैं? यह नहीं भूलना चाहिए कि उन्हें सफल और प्रसिद्ध बनाने वाली जनता ही है। अगर एक अभिनेत्री यह कहती है कि ‘जनता को उसकी फिल्म अच्छी नहीं लगती तो वह देखने जाती ही क्यों है,’ तो उसके गहरे मायने हैं। सोशल मीडिया के दौर में आपका हर बयान रिकॉर्ड पर रहता है, जो कभी पीछा नहीं छोड़ेगा।

एक अन्य ‘अभिनेता’, जिन्होंने अपना फिल्मी करिअर शुरू ही किया है और उनके खाते में कोई चर्चित फिल्म नज़र नहीं आती, उनके द्वारा जनता को ‘ललकारना’ हास्यास्पद है। उन्हें अभी अपने अभिनय को सुधारने पर ध्यान देना चाहिए। फिल्म अभिनेताओं, निर्माताओं, निर्देशकों को भारतीय समाज के महानायकों, सुधारकों, योद्धाओं के जीवन का अध्ययन करना चाहिए, ताकि वे समाज की बेहतरी की लिए योगदान दे सकें। फिर यही जनता उन्हें सिर-आंखों पर बैठाएगी। हिंदू धर्म और उसके प्रतीकों का मज़ाक उड़ाने के दिन लद गए।

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