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एक और अंदरूनी चुनौती से येडियुरप्पा का सामना

एक और अंदरूनी चुनौती से येडियुरप्पा का सामना
एक और अंदरूनी चुनौती से येडियुरप्पा का सामना

बेंगलूरु/दक्षिण भारत। कर्नाटक में भारतीय जनता पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने बड़े शांत लहजे में कहा, ‘इंदिरा गांधी के दौर में जनार्दन पुजारी जैसे नेताओं पर कर्नाटक का दारोमदार होता था क्योंकि केंद्रीय नेतृत्व राज्य में मजबूत नेताओं को नहीं देखना चाहता था। आज भाजपा में भी कुछ वैसा ही होता दिख रहा है।’ यह बयान राज्यसभा के लिए कर्नाटक से घोषित पार्टी के दो उम्मीदवारों के साथ मुख्यमंत्री बीएस येडियुरप्पा की भावहीन तस्वीर पर सामने आया है। इसकी वजह यह है कि भाजपा की कर्नाटक इकाई ने इनमें से किसी भी नाम की सिफारिश नहीं की थी और न ही वह अशोक गस्ती या ईरन्ना कड़ाड़ी को असरदार या करिश्माई नेता मानती है। ये दोनों शख्स केवल एक आदमी बीएल संतोष की पसंद माने जाते हैं जो भाजपा का राष्ट्रीय संगठन सचिव हैं और कर्नाटक में पहले काम करने की वजह से उनकी यहां गहरी जड़ें हैं।

राजीव ने भी कतरे थे कन्नड़ नेतृत्व के पर

वैसे कर्नाटक के लिए राज्य नेतृत्व की अहमियत को कम करना कोई नई बात नहीं है। पुराने नेता उस वक्त को याद करते हैं जब राजीव गांधी ने स्ट्रोक के बाद जिंदगी और मौत के बीच जूझ रहे वीरेंद्र पाटिल को पद से हटा दिया था। राजीव ने बेंगलूर हवाईअड्डे पर ही उस चिट्ठी का फरमान सुना दिया था। इस घटना ने कांग्रेस को कर्नाटक में कई वर्षों तक सत्ता से दूर रखा था। कांग्रेस को वर्ष 1994 के विधानसभा चुनावों में सबसे बुरी हार का सामना करना पड़ा था। कांग्रेस की सीटें 179 से घटकर सिर्फ 36 पर आ गई थीं और उसको मिले मत में भी 17 फीसदी की जोरदार गिरावट आई थी। इसका फायदा भाजपा और जनता दल को हुआ था। भाजपा को मिले मत चार फीसदी से बढ़कर 16.99 फीसदी हो गए थे जबकि जनता दल को भी 27.08 फीसदी से बढ़कर 33.54 फीसदी मत मिले थे। कई मायनों में वर्ष 1994 के चुनाव ने ही कर्नाटक भाजपा में लिंगायत नेतृत्व को स्थापित किया और येडियुरप्पा उसके सबसे बड़े लाभार्थी रहे।

येडियुरप्पा के सिवा कोई सर्वमान्य नेता नहीं

पार्टी का हर नेता मानता है कि कर्नाटक भाजपा के पास येडियुरप्पा को छोड़कर कोई भी ऐसा नेता नहीं है जिसकी पूरे राज्य में स्वीकार्यता हो। लेकिन उनके आलोचकों की भी कमी नहीं है। वर्ष 2016 में जब पार्टी ने येडियुरप्पा को कमान सौंपी थी तो उन्हें अपने ही दल के भीतर काफी गुटबाजी का सामना करना पड़ा था। कुरुबा जाति के नेता केएस ईश्र्वरप्पा अपने समुदाय को लामबंद करने की हद तक चले गए थे। ईश्र्वरप्पा लिंगायत (येडियुरप्पा) एवं वोक्कालिगा (एचडी देवेगौड़ा) दोनों की ताकत के खिलाफ एक सामाजिक गठबंधन खड़ा करना चाहते थे। वोक्कालिगा समुदाय से ताल्लुक रखने वाले सदानंद गौड़ा और लिंगायत जगदीश शेट्टर को भी कई तरह की शिकायतें थीं। उन्हें बीएल संतोष के रूप में एक सहानुभूति रखने वाला शख्स मिला जो राज्य में भाजपा और आरएसएस के बीच समन्वय का काम करते थे।

भाजपा के लिए येडियुरप्पा ने मारे कई मैदान

फिर वर्ष 2018 में विधानसभा चुनाव हुए जिसमें भाजपा 105 सीट के साथ सबसे बड़े दल के रूप में सामने आई जबकि कांग्रेस को 78 और जनता दल (एस) को 37 सीट मिलीं। ऐसे समय में कांग्रेस और जद (एस) ने एक अस्थिर गठजोड़ बना लिया लेकिन भाजपा के दबाव में वह टूट गया। फिर खुद को चुनाव में विजयी मानने वाले येडियुरप्पा ने पूरे इत्मिनान से मुख्यमंत्री पद संभाल लिया। लगभग उसी वक्त संतोष को दिल्ली बुलाकर राष्ट्रीय राजनीति का हिस्सा बनने को कहा गया तो येडियुरप्पा के समर्थकों ने राहत की सांस ली। भाजपा के पुराने नेता कहते हैं, ‘उत्तर भारत की राजनीति जटिलताओं से भरी हुई है। संतोष कई बार बहुत छोटे कार्यक्रमों में शिरकत करने के लिए भी बेंगलूरु जाते रहते हैं। साफ है कि उनका दिल कर्नाटक में ही लगता है।’ पिछले लोकसभा चुनाव में भी कुछ उम्मीदवारों के चयन में संतोष का असर देखने को मिला था। पुराने दौर के नेताओं को त्योरियां तो उस समय भी चढ़ी थीं जब संतोष पार्टी अध्यक्ष के साथ एक मंच पर नजर आए थे। कुशाभाऊ ठाकरे या सुंदर सिंह भंडारी या फिर केएन गोविंदाचार्य के भी संगठन सचिव रहते समय ऐसा कभी नहीं देखा गया था। भाजपा के अधिकतर पुराने नेताओं का मानना है कि ऐसे में संतोष की राजनीतिक स्थिति को भी अभिशप्त नहीं माना जा सकता है।

और ऐसा क्यों होना चाहिए? मुख्यमंत्री बनने वाले पहले प्रचारक नरेंद्र मोदी थे। उसके बाद मनोहर लाल खट्टर के हिस्से में यह उपलब्धि आई। आरएसएस की तरफ से इन्हें भाजपा को ‘उधार’ दिए जाने का यह मतलब था कि कोई परंपरा नहीं टूटी है और आरएसएस को महज सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन के तौर पर देखने के लिए प्रशिक्षित लोगों के बीच अब राजनीति कोई गंदा शब्द नहीं रह गया था।

अलग सांचे में ढले नेता हैं येडियुरप्पा

लेकिन येडियुरप्पा सख्त मिट्टी के बने हैं और इतनी आसानी से हार नहीं मानने जा रहे हैं। वह अपने परिवार एवं तमाम कारोबारी घरानों के असर में हो सकते हैं लेकिन उन्होंने भाजपा को राज्य की 28 में से 25 लोकसभा सीट जिताने के अलावा गत दिसंबर में हुए विधानसभा उपचुनाव में 15 में से 12 सीट दिलवाईं। राज्य विधान परिषद की सात रिक्त सीट के लिए 29 जून को चुनाव होने वाले हैं। इसके नतीजों का भी भाजपा की सियासत पर असर पड़ने वाला है।

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